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दक्षिण भारत के राजवंश और राजपूतों की उत्पत्ति | dakshin bharat ke rajvansh aur rajputon ki utpatti

 

दक्षिण भारत के राजवंश और
राजपूतों की उत्पत्ति

दक्षिण भारत के राजवंश और राजपूतों की उत्पत्ति

दक्षिण भारत के राजवंश

पल्लव वंश

दक्षिण भारत में पल्लव वंश का उदय उस समय हुआ जब सातवाहन वंश अपने पतन की ओर था।

शिवस्कंदवर्मन को पल्लव वंश का संस्थापक माना जाता है। पल्लव शासकों ने अपने शासनकाल में कांची को अपनी राजधानी बनाया।


इस काल के प्रमुख शासक थे : सिंघवर्मा प्रथम,शिवस्कंदवर्मन प्रथम, वीरकुर्च, शान्दवर्मा द्वितीय, कुमार्विष्णु प्रथम, सिंघवर्मा द्वितीय, और विष्णुगोप।


विष्णुगोप के बारे में खा जाता है कि वह समुद्रगुप्त से युद्ध में पराजित हो गया था जिसके बाद पल्लव कमजोर पड़ गए।

सिंह वर्मा द्वितीय के पुत्र, सिंह विष्णु ने 575 ई। में चोलों/कालभ्र की सत्ता को कुचलकर अपने साम्राज्य की पुनर्स्थापना की।


670 में, परमेश्वर वर्मा प्रथम गद्दी पर बैठा। उसने चालुक्य रजा विक्रमादित्य प्रथम को आगे बढ़ने से रोका। हालाँकि चालुक्यों ने पल्लवों के एक अन्य प्रसिद्द शत्रु पांड्य राजा अरिकेसरी मारवर्मा से हाथ मिला लिया और परमेश्वर वर्मा प्रथम को पराजित कर दिया।


695 ई। में परमेश्वर वर्मा प्रथम की मृत्यु हो गई और एक शांतिप्रिय शासक नरसिंह वर्मा द्वितीय उसका उत्तराधिकारी बना। उसे कांची में प्रसिद्द कैलाशनाथ मंदिर बनवाने के लिए जाना जाता है। 722 ई। में अपने बड़े बेटे की अचानक मृत्यु के दुःख में उसकी मृत्यु हो गई।


722 ई। में उसका छोटा पुत्र परमेश्वर वर्मा द्वितीय गद्दी पर बैठा। वह 730 ई। में बिना की वारिस के ही मृत्यु को प्राप्त हो गया जिससे पल्लव राज्य में एक अव्यवस्था व्याप्त हो गई।


साम्राज्य के कुछ अधिकारियों और रिश्तेदारों के साथ घरेलु युद्ध के बाद नंदी वर्मन द्वितीय गद्दी पर बैठा। उसने राष्ट्रकूट राजकुमारी रीता देवी से विवाह किया और पल्लव राज्य को पुनः स्थापित किया।


उसका उत्तराधिकारी दंती वर्मा (796-846) बना जिसने 54 वर्षों तक शासन किया। दंती वर्मा पहले राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग द्वारा और फिर पाण्ड्य शासकों द्वारा पराजित हुआ। 846 में नंदी वर्मा तृतीय उसका उत्तराधिकारी बना।


नंदी वर्मा तृतीय का उत्तराधिकारी नृपतुंगवर्मा था जिसके दो भाई अपराजिता वर्मा और कंपवर्मा थे।


चालुक्य

कर्नाटक शासक, चालुक्यों के इतिहास को तीन कालों में बांटा जा सकता है :


  1. प्रारंभिक पश्चिम काल (छठी – 8वीं शताब्दी) बादामी (वातापी) के चालुक्य;


  1.  पश्चात् पश्चिम काल (7वीं – 12वीं शताब्दी) कल्याणी के चालुक्य;


  1. पूर्वी चालुक्य काल (7वीं – 12वीं शताब्दी) वेंगी के चालुक्य


पुलकेशिन प्रथम (543-566) बादामी चालुक्य वंश का प्रथम शासक था जिसकी राजधानी बीजापुर में वातापी थी।


कीर्तिवर्मा प्रथम (566-596) उसका उत्तराधिकारी था। जब इसकी मृत्यु हुई तब राजकुमार पुलकेशिन द्वितीय बच्चा था इसलिए सिंहासन खाली रहा और राजा के भाई मंगलेश(597-610), को संरक्षक शासक के रूप में नियुक्त किया गया। कई वर्षों तक उसने राजकुमार की हत्या के कई असफल प्रयास किए किन्तु अंततः राजकुमार और उनके मित्रों द्वारा स्वयं की हत्या करवा ली।


पुलकेशिन प्रथम का पुत्र, पुलकेशिन द्वितीय (610-642), हर्षवर्धन का समकालीन था और चालुक्य का सबसे प्रसिद्ध राजा हुआ। उसका शासनकाल कर्नाटक के इतिहास का सर्वश्रेष्ठ समय माना जाता है। उसने नर्मदा के तट पर हर्षवर्धन को पराजित किया।


कौशल और कलिंग पर आधिपत्य के पश्चात, पुलकेशिन द्वितीय के भाई कुब्ज विष्णुवर्धन द्वारा पूर्वी चालुक्य वंश (वेंगी) की स्थापना हुई।


631 तक चालुक्य साम्राज्य का विस्तार इस समुद्र से उस समुद्र तक हो चुका था। हालाँकि 642 में पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम ने चालुक्य राजधानी बादामी पर आक्रमण कर दिया और पुलकेशिन द्वितीय को परास्त कर उसकी हत्या कर दी।


चालुक्यों का उभार एक बार पुनः हुआ जब विक्रमादित्य प्रथम (655-681), ने अपने समकालीन पांड्य,पल्लव, चोल और केरल के शासकों को पराजित कर उस क्षेत्र में चालुक्यों की सर्वोच्चता स्थापित की।


विक्रमादित्य द्वितीय (733-745) ने पल्लव साम्राज्य के एक बड़े क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाने के लिए पल्लव राजा नंदीवर्मा द्वितीय को परस्त किया।


विक्रमादित्य द्वितीय का पुत्र, कीर्तिवर्मा द्वितीय (745), राष्ट्रकूट वंश के संस्थापक दंतीदुर्ग द्वारा हर दिया गया।


मदुरई के पाण्ड्य (छठी से 14वीं शताब्दी)

दक्षिण भारत में शासन करने वाले सबसे पुराने वंशों में से एक पाण्ड्य भी थे। इनका वर्णन कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मेगस्थनीज के इंडिका में भी मिलता है।

इनका सबसे प्रसिद्ध शासक नेंडूजेलियन था जिसने मदुरई को अपनी राजधानी बनाया।


पाण्ड्य शासकों ने मदुरई में एक तमिल साहित्य अकादमी की स्थापना की जिसे संगम कहा जाता है। उन्होंने त्याग के वैदिक धर्म को अपनाया और ब्राह्मण पुजारियों का संरक्षण किया। उनकी शक्ति एक जनजाति ‘कालभोर’ के आक्रमण से घटती चली गई।


छठी सदी के अंत में एक बार पुनः पांड्यों का उदय हुआ। उनका प्रथम महत्वपूर्ण शासक दुन्दुंगन (590-620) था जिसने काल भैरों को परास्त कर पांड्यों के गौरव की स्थापना की।


अंतिम पांड्य राजा पराक्रमदेव था जो दक्षिण में विस्तार की प्रक्रिया में उसफ़ खान (मुह्हमद-बिन-तुगलक़ का वायसराय) द्वारा पराजित किया गया।


चोल (9वीं – 13वीं शताब्दी)

चोल वंश दक्षिण भारत के सबसे प्रसिद्ध वंशों में से एक है जिसने तंजौर को अपनी राजधानी बनाकर तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ हिस्सों पर शासन किया।


आरंभिक चोल शासक कारिकाल चोल थे जिन्होंने दूसरी शताव्दी में शासन किया।


850 ई. में पांड्य-पल्लव युद्ध के दौरान विजयालय ने तंजौर पर अपना आधिपत्य जमा लिया। अपने राज्याभिषेक को सफल बनाने के लिए उसने तंजौर में एक मंदिर बनवाया। इस दौरान श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर की एक विशाल प्रतिमा भी स्थापित कराई गई।


विजयालय का पुत्र आदित्य प्रथम (871-901)उसका उत्तराधिकारी बना।


राजराज प्रथम (985-1014) के शासन के दौरान चोल अपने शीर्ष पर थे। उसने राष्ट्रकूटों से अपना क्षेत्र वापस छीन लिया और चोल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली बन गया। उसने तंजावुर (तमिलनाडु) में भगवान शिव का एक सुन्दर बनवाया। यह उसके नाम से राजराजेश्वर कहलाया।


राजराज प्रथम का पुत्र, राजेंद्र चोल (1014-1044), इस वंश का एक अन्य महत्वपूर्ण शासक था जिसने उड़ीसा, बंगाल, बर्मा और अंडमान एवं निकोबार द्वीप पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके शासनकाल के दौरान भी चोल वंश की प्रसिद्ध चरम पर थी।

इसने श्री लंका पर भी अपना कब्ज़ा किया था।


कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1122) एक अन्य महत्वपूर्ण चोल शासक था। कुलोत्तुंग प्रथम ने दो साम्राज्यों वेंगी के पूर्वी चालुक्य और तंजावुर के चोल साम्राज्य को जोड़ दिया। आदि सदी के लम्बे शासन के बाद 1122 ई।कुलोत्तुंग प्रथम की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र विक्रम चोल, जिसे त्यागसमुद्र भी कहते थे, उसका उत्तराधिकारी बना।


चोल वंश का अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय (1246-79) था।वह एक कमजोर शासक था जिसने पांड्यों के समक्ष समर्पण कर दिया। बाद में मलिक काफूर ने 1310 में इस तमिल राज्य पर आक्रमण कर दिया और चोल साम्राज्य समाप्त हो गया।


राष्ट्रकूट

दंतिदुर्ग (735-756) ने इस साम्राज्य की स्थापना की। राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों को उखाड़ फेंका और 973 ई। तक शासन किया।


दंतीदुर्ग का उत्तराधिकारी कृष्ण प्रथम (756-774) बना। कृष्ण प्रथम ने द्रविड़ शैली के एलोरा के प्रसिद्द कैलाशनाथ मंदिर का निर्माण करवाया।


इस वंश के अन्य शासक थे गोविन्द द्वितीय (774- 780), ध्रुव (780-790), गोविन्द तृतीय (793-814) और अमोघवर्ष नृपतुंग प्रथम (814-887)।


अमोघवर्ष इस वंश का महान शासक था। वह गोविन्द तृतीय का पुत्र था। अमोघवर्ष के साम्राज्य के विस्तार के विषय में अरबी यात्री ‘सुलेमान’ से जानकारी मिलती है जो 851 ई। में उसके दरबार में आया था और अपनी पुस्तक में लिखा है कि ”उसका साम्राज्य उस समय के दुनिया के चार बड़े साम्राज्यों में से एक था”।


इस दौरान भारत में आए अरब यात्री, अल-मसूदी ने राष्ट्रकूट राजा को, ‘भारत का महानतम राजा’ कहा है।


उसके द्वारा स्थापित राजवंश, जिसकी राजधानी कल्याणी (कर्नाटक) थी, बाद के कल्याणी के चालुक्य कहलाये (प्रारंभिक चालुक्य बादामी के चालुक्य थे)। तैलप ने 23 वर्ष (974-997) तक शासन किया।


प्रतिहार (8वीं से 10वीं शताब्दी)

प्रतिहारों को गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता था। ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि ये मूलतः गुजरात या दक्षिण-पश्चिम राजस्थान से थे।


नागभट्ट प्रथम, ने सिंध से राजस्थान में घुसपैठ करने वाले अरब आक्रमणकारियों से पश्चिम भारत की रक्षा की।

नागभट्ट प्रथम, के बाद प्रतिहारों को लगातार हार का सामना करना पड़ा जिसमें इन्हें सर्वाधिक राष्ट्रकूट शासकों ने पराजित किया।

प्रतिहार शक्ति, मिहिरभोज, जो भोज के नाम से प्रसिद्ध था, की सफलता के बाद अपना खोया गौरव पुनः पा सकी। उसके विख्यात शासन ने अरब यात्री सुलेमान को आकर्षित किया था।


मिहिरभोज का उत्तराधिकारी महेन्द्रपाल प्रथम था जिसकी प्रमुख उपलब्धि मगध और उत्तरी बंगाल पर अपना आधिपत्य था। उसके दरबार का प्रसिद्ध लेखक राजशेखर था जिसने अनेक साहित्यिक रचनाएँ लिखी -


1) कर्पूरमंजरी, 2) बालरामायण, 3) बाला और भरता, 4) काव्यमीमांसा


महेन्द्रपाल की मृत्यु के साथ ही सिंहासन के लिए संघर्ष शुरू हो गया। भोज द्वितीय ने गद्दी कब्ज़ा ली लेकिन जल्द ही, सौतेले भाई महिपाल प्रथम ने खुद को सिंहासन वारिस घोषित कर दिया।


राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय के ढक्कन वापसी से महिपाल को उसके आक्रमण से लगे घातक झटके से संभलने का मौका मिला। महिपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी, महेन्द्रपाल प्रथम अपने साम्राज्य को बनाये रखने में कामयाब रहा।

पाल (8वीं से 11वीं शताब्दी)

नौंवी शताब्दी में भारत आये अरब व्यापारी सुलेमान ने पाल साम्राज्य को ‘रूमी’ कहा है।

पाल साम्राज्य की स्थापना 750 ई। में गोपाल ने की थी। गोपाल एक उत्कट बौद्ध था। उसने ओदंतपुरी (बिहारशरीफ़ जिला, बिहार) में बौद्ध बिहार की स्थापना की।


गोपाल का उत्तराधिकारी धर्मपाल बना जिसने पाल राज्य को महानता पर पहुँचाया। उसके नेतृत्व में राज्य का विस्तार हुआ और लगभग संपूर्ण बंगाल एवं बिहार उसका हिस्सा बन गए।


32 वर्षों के शासन के बाद धर्मपाल की मृत्यु हो ओ गई और वो अपना विस्तृत साम्राज्य अपने पुत्र देवपाल के लिए छोड़ गया।

देवपाल 810 में गद्दी पर बैठा और 40 वर्षों तक शासन किया। उसने प्रागज्योतिषपुर (असम), उड़ीसा के क्षेत्रों और आधुनिक नेपाल के क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।

उसने प्रसिद्द बौद्ध लेखक हरिभद्र को संरक्षण दिया। बौद्ध कवि और लोकेश्वर शतक के लेखक वज्र दत्त, देवपाल के राजदरबार में विभूषित होते थे।


सेन (11वीं से 12वीं शताब्दी)

सेन वंश ने पालों के बाद बंगाल बंगाल पर शासन किया। इसका संस्थापक सामंत सेन था जो ‘ब्रम्हक्षत्रिय’ कहलाया।

सामंत सेन के बाद उसका पुत्र हेमंत सेन गद्दी पर बैठा। उसने बंगाल की अस्थिर राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर एक स्वतंत्र रियासत के रूप में खुद को प्रमुखता से स्थापित किया।


हेमंत सेन का पुत्र विजयसेन (प्रसिद्ध राजा) लगभग संपूर्ण बंगाल पर नियंत्रण स्थापित कर अपने परिवार को प्रकाश में लाया। विजयसेन ने अनेक उपाधियाँ ली जैसे – परमेश्वर, परमभट्टारक और महाराजाधिराज।


प्रसिद्ध कवि श्रीहर्ष ने उसकी प्रशंसा में विजय प्रशस्ति की रचना की। विजयसेन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र बल्लाल सेन बना। वह एक प्रसिद्ध विद्वान था।

लक्ष्मण सेन के शासन के दौरान ये साम्राज्य पतन की ओर आ गया था।

देवगिरि के यादव (12वीं से 13वीं शताब्दी)

इस वंश का प्रथम सदस्य द्रीधप्रहर था। हालांकि द्रीध प्रहर का पुत्र स्योन चन्द्र प्रथम वह पहला व्यक्ति था जिसने अपने परिवार के लिए राष्ट्रकूटों से जागीरदार का पद प्राप्त किया।

भिल्लम ने यादव साम्राज्य की नींव रखी जो एक शताब्दी तक कायम रहा। सिंह इस परिवार का सबसे शक्तिशाली शासक था।


दक्षिण में अपनी सफलता से उत्तेजित होकर सिंहन ने अपने वंशगत शत्रु, उत्तर में परमार और गुजरात में चालुक्यों से युद्ध छेड़ा। उसने परमार राजा अर्जुनवर्मन को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। इस तरह सिंहन के शासन में यादव राज्य अपने गौरव के चरम पर पहुंचा।

संगीत पर एक प्रमुख रचना ‘संगीत रत्नाकर’ इसके दरबार में लिखी गई। अनंत देव और चांगदेव, दो प्रसिद्ध खगोलशास्त्री इसके दरबार में विभूषित होते थे।

संभवतः रामचंद्रअंतिम यादव शासक था।


मलिक काफूर ने आसानी से शंकरदेव को परास्त कर हत्या कर दी और यादव राज्य को अपने कब्जे में ले लिया।


राजपूतों की उत्पत्ति

राजपूत वंशों की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों के दो मत प्रचलित हैं- एक का मानना है कि राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी है, जबकि दूसरे का मानना है कि, राजपूतों की उत्पत्ति भारतीय है। हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरान्त जिन महान शक्तियों का उदय हुआ था, इनमें अधिकांश राजपूत वर्ग के अंतर्गत ही आते थे।

एजेंट टॉड ने 12वीं शताब्दी के उत्तर भारत के इतिहास को 'राजपूत काल' भी कहा है। कुछ इतिहासकारों ने प्राचीन काल एवं मध्य काल को 'संधि काल' भी कहा है। इस काल के महत्त्वपूर्ण राजपूत वंशों में राष्ट्रकूट वंश, चालुक्य वंश, चौहान वंश, चंदेल वंश, परमार वंश एवं गहड़वाल वंश आदि आते हैं।

साम्राज्य विस्तार

बंगाल पर पहले पाल वंश का अधिकार था, बाद में सेन वंश का अधिकार हुआ। उत्तरकालीन पाल शासकों में सबसे महत्वपूर्ण 'महिपाल' था। जिसने उत्तरी भारत में महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय करीब पचास वर्षों तक राज किया। 

इस काल में उसने अपने राज्य का विस्तार बंगाल के अलावा बिहार में भी किया। उसने कई नगरों का निर्माण किया तथा कई पुराने धार्मिक भवनों की मरम्मत करवाई, जिनमें से कुछ नालंदा तथा बनारस में थे। 

उसकी मृत्यु के बाद कन्नौज के गहड़वाल ने बिहार से धीरे-धीरे पालों के अधिकार को समाप्त कर दिया और बनारस को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। इसी दौरान चौहान अपने साम्राज्य का विस्तार अजमेर से लेकर गुजरात की ओर कर रहे थे। 

वे दिल्ली और पंजाब की ओर भी बढ़ रहे थे। इस प्रयास में उन्हें गहड़वालो का सामना करना पड़ा। इन्हीं आपसी संघर्षों के कारण राजपूत पंजाब से ग़ज़नवियों को बाहर निकालने में असफल रहे। उनकी कमज़ोरी का लाभ उठाकर ग़ज़नवियों ने उज्जैन पर भी आक्रमण किया।

राजपूत समाज का मुख्य आधार

राजपूत राज्यों में भी सामंतवादी व्यवस्था का प्रभाव था। राजपूत समाज का मुख्य आधार वंश था। हर वंश अपने को एक योद्धा का वंशज बताता था, जो वास्तविक भी हो सकता था और काल्पनिक भी। अलग-अलग वंश अलग-अलग क्षेत्रों पर शासन करते थे। 

इनके राज्यों के अंतर्गत 12, 24, 48 या 84 ग्राम आते थे। राजा इन ग्रामों की भूमि अपने सरदारों में बाँट देता था, जो फिर इसी तरह अपने हिस्से की भूमि को राजपूत योद्धाओं को, अपने परिवारों और घोड़ों के रखरखाव के लिए बांट देते थे। 

राजपूतों की प्रमुख विशेषता अपनी भूमि, परिवार और अपने मान-सम्मान के साथ लगाव था। हर राजपूत राज्य का राजा अधिकतर अपने भाइयों की सहायता से शासन करता था। यद्यपि सारी भूमि पर राजा का ही अधिकार था। भूमि पर नियंत्रण को सम्मान की बात समझने के कारण विद्रोह अथवा उत्तराधिकारी के न होने जैसी विशेष स्थितियों में ही राजा ज़मीन वापस ले लेता था

धार्मिक स्वतंत्रता

उस काल में अधिकतम राजपूत राजा हिन्दू थे, यद्यपि कुछ जैन धर्म के भी समर्थक थे। वे ब्राह्मण और मन्दिरों को बड़ी मात्रा में धन और भूमि का दान करते थे। वे वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के पक्ष में थे। 


इसलिए कुछ राजपूती राज्यों में तो भारत की स्वतंत्रता और भारतीय संघ में उनके विलय तक ब्राह्मणों से अपेक्षाकृत कम लगान वसूल किया जाता था। इन विशेषाधिकारों के बदले ब्राह्मण राजपूतों को प्राचीन सूर्य और चन्द्रवंशी क्षत्रियों के वंशज मानने को तैयार थे।


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