नवरात्रि की सम्पूर्ण कथा और व्रत करने की पूजन विधि
नवरात्रि की सम्पूर्ण कथाए
प्रथम नवरात्र - शैलपुत्री
मंत्र -
वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम् ।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ॥
अनंत शक्तियों से संपन्न हैं देवी का पहला स्वरूप
नवरात्रि में दुर्गा पूजा के अवसर पर दुर्गा देवी के नौ रूपों की पूजा-उपासना बहुत ही विधि विधान से की जाती है।
इन रूपों के पीछे तात्विक अवधारणाओं का परिज्ञान धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है। आइए जानते हैं मां शैलपुत्री के बारे में,
मां शैलपुत्री की कहानी
मां शैलपुत्री सती के नाम से भी जानी जाती हैं। उनकी कहानी इस प्रकार है - एक बार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ करवाने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने सभी देवी-देवताओं को निमंत्रण भेज दिया, लेकिन भगवान शिव को नहीं। देवी सती भली भांति जानती थी कि उनके पास निमंत्रण आएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
वो उस यज्ञ में जाने के लिए बेचैन थीं, लेकिन भगवान शिव ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि यज्ञ में जाने के लिए उनके पास कोई भी निमंत्रण नहीं आया है और इसलिए वहां जाना उचित नहीं है।
सती नहीं मानी और बार बार यज्ञ में जाने का आग्रह करती रहीं। सती के ना मानने की वजह से शिव को उनकी बात माननी पड़ी और अनुमति दे दी।
सती जब अपने पिता प्रजापति दक्ष के यहां पहुंची तो देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं और सिर्फ उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया।
उनकी बाकी बहनें उनका उपहास उड़ा रही थी और सती के पति भगवान शिव को भी तिरस्कृत कर रही थी। स्वयं दक्ष ने भी अपमान करने का मौका ना छोड़ा।
ऐसा व्यवहार देख सती दुखी हो गईं। अपना और अपने पति का अपमान उनसे सहन न हुआ।
और फिर अगले ही पल उन्होंने वो कदम उठाया जिसकी कल्पना स्वयं दक्ष ने भी नहीं की होगी।
सती ने उसी यज्ञ की अग्नि में खुद को स्वाहा कर अपने प्राण त्याग दिए। भगवान शिव को जैसे ही इसके बारे में पता चला तो वो दुखी हो गए। दुख और गुस्से की ज्वाला में जलते हुए शिव ने उस यज्ञ को ध्वस्त कर दिया। इसी सती ने फिर हिमालय के यहां जन्म लिया और वहां जन्म लेने की वजह से इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।
द्वितीय नवरात्र - ब्रह्मचारिणी
मंत्र -
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
दधाना कर मद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
मां ब्रह्मचारिणी की कथा
मां ब्रह्मचारिणी ने राजा हिमालय के घर जन्म लिया था। देवऋषि नारद जी की सलाह पर उन्होंने कठोर तप किया ताकि वह भगवान शिव को पति स्वरूप में प्राप्त कर सकें। कठोर तप की वजह से उनका नाम ब्रह्मचारिणी या तपश्चारिणी पड़ा।
भगवान शिव की आराधना के दौरान उन्होंने हजार सालों तक केवल फल-फूल खाएं और सौ वर्ष तक साग खाकर जीवित रहीं। कठोर तप से उनका शरीर कमजोर हो गया।
मां ब्रह्मचारिणी का तप देखकर सभी देवता, ऋषि-मुनि अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने वरदान दिया कि देवी आपके जैसा तक कोई नहीं कर सकता है।
आपकी मनोकामनाएं अवश्य पूरी होगी और भगवान शिव आपको पति स्वरूप में प्राप्त होंगे और ऐसा ही हुआ।
तृतीय नवरात्र - चंद्रघंटा
मंत्र -
या देवी सर्वभूतेषु मां चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नम:।
माता चंद्रघंटा की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार जब दैत्यों का आतंक बढ़ने लगा तो मां दुर्गा ने मां चंद्रघंटा का अवतार लिया। उस समय असुरों का स्वामी महिषासुर था जिसका देवताओं से भयंकर युद्ध चल रहा था।
महिषासुर देवराज इंद्र का सिंहासन प्राप्त करना चाहता था। उसकी प्रबल इच्छा स्वर्गलोक पर राज करने की थी। उनकी इस इच्छा को जानकार सभी देवता परेशान हो गए और इस समस्या से निकलने का उपाय जानने के लिए भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश के सामने उपस्थित हुए।
देवताओं की बात को गंभीरता से सुनने के बाद तीनों को ही क्रोध आया। क्रोध के कारण तीनों के मुख से जो ऊर्जा उत्पन्न हुई। उससे एक देवी अवतरित हुईं, जिन्हें भगवान शंकर ने अपना त्रिशूल और भगवान विष्णु ने चक्र प्रदान किया।
इसी प्रकार अन्य देवी देवताओं ने भी माता के हाथों में अपने अस्त्र सौंप दिए। देवराज इंद्र ने देवी को एक घंटा दिया। सूर्य ने अपना तेज और तलवार दी, सवारी के लिए सिंह प्रदान किया।
इसके बाद मां चंद्रघंटा महिषासुर के पास पहुंची। मां का ये रूप देखकर महिषासुर को ये आभास हो गया कि उसका काल आ गया है। महिषासुर ने मां पर हमला बोल दिया।
इसके बाद देवताओं और असुरों में भंयकर युद्ध छिड़ गया, मां चंद्रघंटा ने महिषासुर का संहार किया, इस प्रकार मां ने देवताओं की रक्षा की।
चतुर्थ नवरात्र - कुष्मांडा
मंत्र -
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे।
माँ कुष्मांडा की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी।
इसलिए इसे सृष्टि की आदि स्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है।
इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं।
ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में उन्हीं का तेज व्याप्त है। अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है।
ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है। विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है।
ये देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख-समृद्धि और उन्नति प्रदान करती हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए। नवरात्रि के चौथे दिन मां कूष्मांडा की पूजा अर्चना की जाती है।
कूष्मांडा मां सूर्य से सम्बंधित दोषों को ठीक करती हैं। जिन जातकों की कुंडली में सूर्य नीच का हो उन्हें मां कूष्मांडा की पूजा से लाभ होता है।
पंचम नवरात्र - स्कंदमाता
मंत्र -
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥
माँ स्कंदमाता की कथा
कुमार कार्तिकेय की रक्षा के लिए जब माता पार्वती क्रोधित होकर आदिशक्ति रूप में प्रकट हुईं तो इंद्र भय से कांपने लगे। इंद्र अपने प्राण बचाने के लिए देवी से क्षमा याचना करने लगे।
कुमार कार्तिकेय का एक नाम स्कंद भी है इसलिए माता को मनाने के लिए इंद्र देवताओं सहित स्कंदमाता नाम से देवी की स्तुति करने लगे और उनका इसी रूप में पूजन किया। इस समय से ही देवी अपने पांचवें स्वरूप में स्कंदमाता रूप से जानी गई और नवरात्रि के पांचवें दिन इनकी पूजा का विधान तय हो गया।
शास्त्रों में इसका काफी महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है।
अतः मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है। उनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है।
यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है। यानी चेतना का निर्माण करने वालीं कहते हैं। कालिदास द्वारा रचित रघुवंश महाकाव्य और मेघदूत रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं।
षष्ठ नवरात्र - कात्यायनी
मंत्र -
चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥
इनकी चार भुजाएं हैं। दाईं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है।इनका स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। ये स्वर्ण के समान चमकीली हैं और भास्वर हैं।
माँ कात्यायनी की कथा
इस देवी को नवरात्रि में छठे दिन पूजा जाता है। कात्य गोत्र में विश्व प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो।
मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया।इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाई। इनका गुण शोध कार्य है। इसलिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे जो जाते हैं। ये बैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं।
मां कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की गई थी। इसलिए ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित है।
मां कात्यायनी शत्रुहंता है इसलिए इनकी पूजा करने से शत्रु पराजित होते हैं और जीवन सुखमय बनता है। जबकि मां कात्यायनी की पूजा करने से कुंवारी कन्याओं का विवाह होता है।
नवरात्रि के छठे दिन भक्त का मन आग्नेय चक्र पर केन्द्रित होना चाहिए। अगर भक्त खुद को पूरी तरह से मां कात्यायनी को समर्पित कर दें, तो मां कात्यायनी उसे अपना असीम आशीर्वाद प्रदान करती है।
नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। मां कात्यायनी बृहस्पति ग्रह की स्वामिनी मानी गई हैं। कात्यायनी देवी की पूजा करने से बृहस्पति ग्रह से संबंधित दोष समाप्त होते हैं।
सप्तम नवरात्र - कालरात्रि
मंत्र -
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥
माँ कालरात्रि की कथा
कथा के अनुसार दैत्य शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। इससे चिंतित होकर सभी देवतागण शिव जी के पास गए। शिव जी ने देवी पार्वती से राक्षसों का वध कर अपने भक्तों की रक्षा करने को कहा।
शिव जी की बात मानकर पार्वती जी ने दुर्गा का रूप धारण किया और शुंभ-निशुंभ का वध कर दिया। परंतु जैसे ही दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा उसके शरीर से निकले रक्त से लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो गए।
इसे देख दुर्गा जी ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया। इसके बाद जब दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा तो उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को कालरात्रि ने अपने मुख में भर लिया और सबका गला काटते हुए रक्तबीज का वध कर दिया।
इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन ये सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं। इसलिए ये शुभंकरी कहलाईं अर्थात इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कोई आवश्यकता नहीं। उनके साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है।
कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं।
इसलिए दानव, दैत्य, राक्षस और भूत-प्रेत उनके स्मरण से ही भाग जाते हैं। अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है।
ये ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।
नवरात्रि के सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा अर्चना की जाती है, मां कालरात्रि की पूजा करने से शनि दोष समाप्त होता है।
अष्टम नवरात्र - महागौरी
मंत्र -
श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोदया॥
माँ महागौरी की कथा
इनकी पूरी मुद्रा बहुत शांत है। पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी।
इसी वजह से इनका शरीर काला पड़ गया लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसीलिए ये महागौरी कहलाईं।
ये अमोघ फलदायिनी हैं और इनकी पूजा से भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।
नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा करने का प्रचलन है। मां महागौरी राहू की स्वामिनी मानी जाती हैं. जो जातक नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा अर्चना करते हैं उनकी जन्मपत्री का राहु दोष समाप्त हो जाता है।
नवम नवरात्र - सिद्धिदात्री
मंत्र -
या देवी सर्वभूतेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
माँ सिद्धिदात्री की कथा
शास्त्रों के अनुसार, देवी दुर्गा का यह स्वरूप सभी देवी-देवताओं के तेज से प्रकट हुआ है। कहते हैं कि दैत्य महिषासुर के अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान शिव और प्रभु विष्णु के पास गुहार लगाने गए थे।
तब वहां मौजूद सभी देवतागण से एक तेज उत्पन्न हुआ। उस तेज से एक दिव्य शक्ति का निर्माण हुआ। जिन्हें मां सिद्धिदात्री के नाम से जाते हैं।
व्रत करने की पूजन विधि
आश्विन की शुक्ल प्रतिपदा से इस व्रत का प्रारंभ होता है ।
घर के किसी पवित्र स्थान पर एक वेदी तैयार कर, उस पर सिंहारूढ अष्टभुजा देवी की और नवार्णव यंत्र की स्थापना की जाती है । यंत्र के समीप घटस्थापना कर, कलश व देवी का यथाविधि पूजन किया जाता है ।
नवरात्रि महोत्सव में कुलाचारानुसार घटस्थापना व मालाबंधन करें । खेत की मिट्टी लाकर दो पोर चौडा चौकोर स्थान बनाकर, उसमें पांच या सात प्रकार के धान बोएं ।
इसमें (पांच अथवा) सप्तधान्य रखें । जौ, गेहूं, तिल, मूंग, चेना, सांवां, चने सप्तधान्य हैं ।
जल, गंध (चंदन का लेप), पुष्प, दूब, अक्षत, सुपारी, पंचपल्लव, पंचरत्न व स्वर्णमुद्रा या सिक्के इत्यादि वस्तुएं मिट्टी या तांबे के कलश में रखें ।
सप्तधान व कलश (वरुण) स्थापना के वैदिक मंत्र यदि न आते हों, तो पुराणोक्त मंत्र का उच्चारण किया जा सकता है । यदि यह भी संभव न हो, तो उन वस्तुओं का नाम लेते हुए `समर्पयामि’ बोलते हुए नाममंत्र का विनियोग करें । माला इस प्रकार बांधें, कि वह कलश के भीतर पहुंचे ।
नवरात्रों का व्रत करने वाले अपनी आर्थिक क्षमता व सामर्थ्य के अनुसार विविध कार्यक्रम करते हैं, जैसे अखंड दीपप्रज्वलन, उस देवता का माहात्म्यपठन (चंडीपाठ), सप्तशतीपाठ, देवीभागवत, ब्रह्मांडपुराण के ललितोपाख्यानका श्रवण, ललितापूजन, सरस्वतीपूजन, उपवास, जागरण इत्यादि ।
यद्यपि भक्त का उपवास हो, फिर भी देवता को हमेशा की तरह अन्न का नैवेद्य दिखाना पडता है । व्रत के दौरान उपासक उत्कृष्ट आचरण का एक अंग मानकर दाढी न बनाना, ब्रह्मचर्य का पालन, पलंग व बिस्तर पर न सोना, गांव की सीमा न लांघना, चप्पल व जूतों का प्रयोग न करना इत्यादि का पालन करता है ।
नवरात्रि की संख्या पर जोर देकर कुछ लोग अंतिम दिन भी नवरात्रि रखते हैं; परंतु शास्त्रानुसार अंतिम दिन नवरात्रि समापन आवश्यक है । इस दिन समाराधना (भोजनप्रसाद) उपरांत, समय हो तो उसी दिन सर्व देवताओं का अभिषेक व षोडशोपचार पूजा करें । समय न हो, तो अगले दिन सर्व देवताओं का पूजाभिषेक करें ।
देवी की मूर्ति का विसर्जन करते समय बोए हुए धान के पौधे देवी को समर्पित किए जाते हैं । उन पौधों को `शाकंभरीदेवी’ का स्वरूप मानकर स्त्रियां अपने सिरपर धारण कर चलती हैं और फिर उसे विसर्जित करती हैं ।
स्थापना व समापन के समय देवों का `उद्वार्जन (सुगंधी द्रव्यों से स्वच्छ करना, उबटन लगाना)’ करें । उद्वार्जन हेतु सदैव की भांति नींबू, भस्म इत्यादि का प्रयोग करें । रंगोली, बर्तन मांजने के चूर्ण का प्रयोग न करें ।
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