विजय नगर साम्राज्य
स्थापना:-1336 ई0 (आधुनिक कर्नाटक में)
राजधानी:-विजय नगर (आधुनिक हम्पी)
प्रारम्भिक राजधानी:- अनेगुण्डी दुर्ग।
संस्थापक:- हरिहर और बुक्का द्वारा तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में।
विजयनगर साम्राज्य (1336-1646) मध्यकालीन दक्षिण भारत का एक साम्राज्य था। इसके राजाओं ने 310 वर्ष राज किया। इसका वास्तविक नाम कर्णाटक साम्राज्य था। इसकी स्थापना हरिहर और बुक्का राय नामक दो भाइयों ने की थी। पुर्तगाली इसे बिसनागा राज्य के नाम से जानते थे। इस साम्राज्य पर राजा के रूप में तीन राजवंशों ने राज्य किया ।
(1) संगम वंश,
(2) सालुव वंश,
(3) तुलव वंश ।
विजयनगर साम्राज्य का राजनीतिक इतिहास
1. संगम वंश (1336 से 1485 ई. तक)
हरिहर प्रथम(1336 से 1353 ई.तक) - हरिहर प्रथम ने अपने भाई बुककाराय के सहयोग से विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की। उसने धीरे-धीरे साम्राज्य का विस्तार किया। होयसल वंश के राजा बल्लाल की मृत्यु के बाद उसने उसके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। 1353 ई. में हरिहर की मृत्यु हो गई।
बुकाराय (1353 से 1379 ई. तक)- बुक्काराय ने गददी पर बैठते ही राजा की उपाधि धारण की। उसका पूरा समय बहमनी साम्राज्य के साथ संघर्ष में बीता। 1379 ई. को उसकी मृत्यु हुई। वह सहिष्णु तथा उदार शासक था।
हरिहर द्वितीय (1379 से 1404 ई. तक)- बकुकाराय की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र हरिहर द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ तथा साथ ही महाराजाधिराज की पदवी धारण की। इसने कई क्षेत्रों को जीतकर साम्राज्य का विस्तार किया। 1404 ई. में हरिहर द्वितीय कालकवलित हो गया।
बुक्काराय द्वितीय (1404-06 ई.)
देवराय प्रथम (1404-10 ई.),
विजय राय (1410-19ई.)
देवराय द्वितीय (1419-44 ई),
मल्लिकार्जुन (1444-65 ई.) तथा
विरूपाक्ष द्वितीय (1465-65 ई.) इस वंश के अन्य शासक थे।
देवराज द्वितीय के समय इटली के यात्री निकोलोकोण्टी 1421 ईको विजयनगर आया था।
अरब यात्री अब्दुल रज्जाक भी उसी के शासनकाल 1443 ई. में आया था, जिसके विवरणों से विजय नगर राज्य के इतिहास के बारे में पता चलता है।
अब्दुल रज्जाक के तत्कालीन राजनीतिक स्थितियों का वर्णन करते हुये लिखा है- ‘‘यदि जो कुछ कहा जाता है वह सत्य है जो वर्तमान राजवंश के राज्य में तीन सौ बन्दरगाह हैं, जिनमें प्रत्येक कालिकट के बराबर है, राज्य तीन मास 8 यात्रा की दूरी तक फैला है, देश की अधिकांश जनता खेती करती है। जमीन उपजाऊ है, प्राय: सैनिको की संख्या 11 लाख होती है।’’ उनका बहमनी सुल्तानों के साथ लम्बा संघर्ष हुआ। विरूपाक्ष की अयोग्यता का लाभ उठाकर नरसिंह सालुव ने नये राजवंश की स्थापना की।
2. सालुव वंश (1486 से 1505 ई. तक)
नरसिंह सालुव (1486 ई.) एक सुयोग्य वीर शासक था। इसने राज्य में शांति की स्थापना की तथा सैनिक शक्ति में वृद्धि की। उसके बाद उसके दो पुत्र गद्दी पर बैठे, दोनों दुर्बल शासक थे। 1505 ई. में सेनापति नरस नायक ने नरसिंह सालुव के पुत्र को हराकर गद्दी हथिया ली।
3. तुलव वंश (1505 से 1509 ई. तक)-
वीरसिंह तुलव (1505 से 1509 ई. तक)- 1505 ई. में सेनापति नरसनायक तुलुव की मृत्यु हो गई । उसे पुत्र वीरसिंह ने सालुव वंश के अन्तिम शासक की हत्या कर स्वयं गद्दी पर अधिकार कर लिया।
कृष्णादेव राय तुलव (1509 से 1525 ई. तक)- वह विजयनगर साम्राज्य का सर्वाधिक महान् शासक माना जाता है। यह वीर और कूदनीतिज्ञ था । इसने बुद्धिमानी से आन्तरिक विद्रोहों का दमन किया तथा उड़ीसा और बहमनी के राज्यों को फिर से अपने अधिकार में कर लिया। इसके शासनकाल में साम्राज्य विस्तार के साथ ही साथ कला तथा साहित्य की भी उन्नति हुई। वह स्वयं कवि व ग्रंथों का रचयिता था।
अच्युतुत राव (1529 से 1542)- कृष्णदेव राय का सौतलेा भाई।
वेंकंट प्रथम (1541 से 1542 ई.)- छ: माह शासन किया।
सदाशिव (1542 से 1562 ई.) - वेंकट का भतीजा शासक बना । ताली काटे का युद्ध हुआ । विजयनगर राज्य के विरोध में एक सघं का निर्माण किया । इसमें बीजापरु , अहमदनगर, बीदर, बरार की सेनाएं शामिल थी।
बहमनी राज्य व विजयनगर में संघर्ष रायचूर दोआब की समस्या
मुहम्मद प्रथम के काल में जो युद्ध व संघर्ष विजयनगर के साथ प्रारम्भ हुआ वह बहमनी राज्य के पतन तक चलता रहा। विजयनगर और बहमनी शासकों में रायचूर दोआब के अतिरिक्त मराठवाड़ा और कृष्णा कावेरी घाटी के लिए भी युद्ध हुए। कृष्णा गोदावरी घाटी में संघर्ष होते रहा। इसके प्रमुख कारणों में राजनीति, भौगोलिक तथा आर्थिक थे। फरिश्ता के अनुसार दोनों राज्यों के मध्य शान्ति विजयनगर द्वारा निर्धारित राशि देने से बन्द करता था तब तब युद्ध होते रहता था। भौगोलिक रूप बहमनी राज्य तीन तरफ से मालवा गुजरात उड़ीसा जैसे शक्तिशाली राज्यों से घिरा हुआ था। विजयनगर तीन दिशाओं से समुद्र से घिरा था। वे राज्य विस्तार के लिए केवल तुंगभद्रा क्षत्रे पर हो सकता था। अत: भौगोलिक रूप कटे- फटे होने के कारण बडे - बड़े बन्दरगाह भी इसी भाग में था।
पुतगालियों का आगमन
सल्तनत काल में ही यूरोप के साथ व्यापारिक संबंध कायम हो चुका था 1453 ई. में कुस्तुन्तुनिया पर तुर्को का अधिकार हो जाने के बाद यूरोपीय व्यापारियों को आर्थिक नुकसान होने लगा। तब नवीन व्यापारिक मार्ग की खोज करने लगे। जिससे भारत में मशालों का व्यापार आसानी से हो सके। पुर्तगाल के शासक हेनरी के प्रयास से वास्कोडिगाम भारत आये।
अपने निजी व्यापार को बढ़ाना चाहते थे व दुसरे पुर्तगाली एशिया और अफ्रीकीयों को इसाई बनाना मुख्य उद्देश्य था व अरब को कम करना मुख्य उद्देश्य था।
गोआ पुर्तगालियों की व्यापारिक और राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था। गोआ तथा दक्षिणी शासकों पर नियंत्रण रखा जा सकता था।
विजय नगर साम्राज्य के पतन के कारण
पडा़ेसी राज्यों से शत्रुता की नीति- विजयनगर सम्राज्य सदैव पड़ोसी राज्यों से संघर्ष करता रहा। बहमनी राज्य से विजयनगर नरेशों का झगड़ा हमेशा होते रहता था। इससे साम्राज्य की स्थिति शक्तिहीन हो गयी।
निरंकुश शासक- अधिकांश शासक निरकुश थे, वे जनता में लोकपिय्र नहीं बन सके।
अयोग्य उत्तराधिकारी- कृष्णदेव राय के बाद उसका भतीजा अच्युत राय गद्दी पर बैठा। वह कमजोर शासक था। उसकी कमजोरी से गृह-युद्ध छिड़ गया तथा गुटबाजी को प्रोत्साहन मिला।
उड़ी़सा-बीजापुर के आक्रमण- जिन दिनों विजयनगर साम्राज्य गृह-युद्ध में लिप्त था। उन्हीं दिनों उड़ीसा के राजा प्रतापरूद्र गजपति तथा बीजापुर के शासक इस्माइल आदिल ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। गजपति हारकर लौट गया पर आदिल ने रायचूर और मुदगल के किलों पर अधिकार जमा लिया।
गोलकुंडा तथा बीजापुुर के विरूद्ध सैनिक अभियान- इस अभियान से दक्षिण की मुस्लिम रियासतों ने एक संघ बना लिया। इनसे विजयनगर की सैनिक शक्ति कमजोर हो गयी।
बन्नीहट्टी का युद्ध तथा विजयनगर साम्राज्य का अन्त- तालीकोट के पास हट्टी में मुस्लिम संघ तथा विजयनगर साम्राज्य के मध्य युद्ध हुआ। इससे रामराय मारा गया। इसके बाद विजयनगर साम्राज्य का अन्त हो गया। बीजापुर व गोलकुंडा के शासकों ने धीरे- धीरे उसके राज्य को हथिया लिया।
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